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रविवार, 26 नवंबर 2017

देवसेना का गीत। जयशंकर प्रसाद। devsena ka geet | class 12 cbse

                               देवसेना का गीत 


देवसेना का गीत छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद जी के नाटक 'स्कंदगुप्त' से लिया गया है , इसमें देवसेना की वेदना का मार्मिक चित्रण किया गया है। देवसेना जो मालवा की राजकुमारी है उसका पूरा परिवार हूणों के हमले में  वीरगति को प्राप्त होता है। वह रूपवती / सुंदर थी लोग उसे तृष्णा भरी नजरों से देखते थे , लोग उससे विवाह करना चाहते थे , किंतु वह स्कंदगुप्त से प्यार करती थी , किंतु स्कंदगुप्त धन कुबेर की कन्या विजया से प्रेम करता था। जिसके कारण वह देवसेना के प्रणय - निवेदन को ठुकरा देता है। परिवार सभी सदस्यों के मारे जाने के उपरांत उसका कोई सहारा नहीं रहता , जिसके कारण वह इस जीवन में अकेली हो जाती है। जीवन - यापन के लिए जीवन की संध्या बेला में भीख मांगकर जीवनयापन करती है और अपने जीवन में व्यतीत क्षणों को याद कर कर दुखी होती है।



आह ! वेदना मिली विदाई !
मैंने भ्रम-वश जीवन संचित,
मधुकरियो की भीख लुटाई।

छलछल थे संध्या के श्रमकण
आंसू - से गिरते थे प्रतिक्षण।
मेरी यात्रा पर लेती थी-
निरवता अनंत अंगड़ाई।

शब्दार्थ :
वेदना - पीड़ा। भ्रमवश - भ्रम के कारण। मधुकरियो - पके हुए अन्न।  श्रमकण - मेहनत से  उत्पन्न पसीना।  नीरवता - खामोशी। अनंत - अंतहीन।

प्रसंग :
प्रस्तुत पंक्तियां देवसेना का गीत जो प्रसाद जी के नाटक स्कंदगुप्त  का अंश है।   हूणों  के हमले से अपने भाई और मालवा के राजा बंधुवर्मा तथा परिवार के सभी लोगों के वीरगति पाने और अपने प्रेम स्कंधगुप्त द्वारा ठुकराया जाने से टूटी देवसेना जीवन के आखिरी मोड़ पर आकर अपने अनुभवों में अर्जित दर्द भरे क्षण  का स्मरण करके यह गीत गा रही है इसी दर्द को कवि देवसेना के मुख से गा रहा है।

व्याख्या :
कवि देवसेना के मुख से अपने जीवन के अनुभव को व्यक्त करना चाह रहा है जिसमें वह छोटी छोटी बातों को भी शामिल करना चाहता है। आज मेरे दर्द को मुझसे विदाई मिल गई जिस भ्रम में रहकर मैंने जीवन भर आशाओं और कामनाओं कोई इकट्ठा  किया उसे मैंने भीख में दे दिया। मेरी दर्द भरी शामें आंसू में भरी हुई और मेरा जीवन गहरे वीरान जंगल में रहा। देवसेना अपने बीते हुए जीवन पर दृष्टि डालते हुए अपने अनुभवों और पीड़ा के पलों को याद कर रही है जिसमें उसकी जिंदगी के इस मोड़ पर अर्थात जीवन की आखिरी क्षणों में वह अपने जवानी में किए गए कार्यों को याद करते हुए अपना दुख प्रकट कर रही है। अपनी जवानी में किए गए प्यार , त्याग ,तपस्या  को वह गलती से किए गए कार्यों की श्रेणी में बताकर उस समय की गई अपनी नादानियों पर पछतावा कर रही है। जिसके कारण उसकी आंखों से आंसू बह निकले हैं।

विशेष :
१ देवसेना के जीवन का संघर्ष तथा उसके  मनोदशा का चित्रण आंसू से गिरते थे।
२ 'प्रतिक्षण' में उपमा अलंकार
३ 'छलछल'  में पुनरुक्ति अलंकार
४ मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अंगड़ाई में 'मानवीकरण' हुआ है



श्रमित स्वप्न की मधुमाया में,
गहन - विपिन की तरु - छाया में,
पथिक उंनींदी श्रुति में किसने-
यह विहाग की तान उठाई।

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी,
रही बचाए फिरती कबकी।
मेरी आशा आह ! बावली,
तूने खो दी सकल कमाई।

शब्दार्थ :
श्रमित - श्रम से युक्त। मधुमाया - सुख की माया। गहन - विपिन - घने जंगल। पथिक - राही।  उंनींदी - अर्ध निंद्रा। विहाग - राग। सतृष्ण - तृष्णा से युक्त दृष्टि।

व्याख्या : देवसेना कहती है कि परिश्रम से थके हुए सपने के मधुर सम्मोहन में घने वन के बीच पेड़ की छाया में विश्राम करते हुए यात्री की नींद से भरी हुई सुनने की अलसाई क्रिया में यह किसने राग बिहाग की स्वर लहरी छेड़ दी है। भाव यह है कि जीवन भर संघर्ष रत रहती हुई देवसेना  दिल से नासिक सुख  की आकांक्षा लिए मीठे सपने देखती रही।  जब उसके सपने पूरे ना हो सके तो वह थक कर निराश होकर सुख की आकांक्षा से विदाई लेती हुई उससे मुक्त होना चाहती है। ऐसी स्थिति में भी करुणा भरे गीत की तरह वियोग का दुख उसके हृदय को कचोट रहा है। देवसेना कहती है की युवावस्था में तो सब की तृष्णा भरी अर्थात प्यासी नजरें मेरे ऊपर फिरती रहती थी। परंतु यह मेरी आशा पगली तूने मेरी सारी कमाई हुई पूंजी ही खो दी। देवसेना के कहने का तात्पर्य यह है कि जब अपने आसपास उसके सब की प्यासी नजरें दिखती थी तब वह स्कंदगुप्त प्रेम में पड़ी हुई स्वयं को उस से बचाने की कोशिश करती रहती थी। परंतु अपनी पागल आशा के कारण वह अपने जीवन की पूंजी अपनी सारी कमाई को बचा न सकी अर्थात उसे अपने प्रेम के बदले और सुख नहीं मिल सका।

चढ़कर मेरे जीवन - रथ पर,
प्रलय चल रहा अपने पथ पर।
मैंने  निज दुर्बल पद - बल पर,
उससे हारी - होड़ लगाई।

लौटा लो यह अपनी थाती ,
मेरी करुणा हा - हा खाती।
विश्व ! न सँभलेगा यह मुझसे,
इससे मन की लाज गंवाई।


शब्दार्थ :
निज - अपना। प्रलय - आपदा। थाती - धरोहर /प्यार /अमानत। सतृष्ण - तृष्णा संयुक्त।

व्याख्या :
देवसेना कहती है कि मेरे जीवन रूपी रथ पर सवार होकर प्रलय अपने रास्ते पर चला जा रहा है। अपने दुर्बल पैरों के बल पर उस प्रलय से ऐसी प्रतिस्पर्धा कर रही हूं जिसमें मेरी हार सुनिश्चित है। देवसेना कहती है कि यह संसार तुम अपने धरोहर को अमानत को वापस ले लो , मेरी करुणा हाहाकार कर रही है , यह मुझसे नहीं समझ पाएगा इसी कारण मैंने अपने मन की लज्जा को गवा दिया था। आज यह है कि देवसेना जीवन के लिए संघर्ष कर रही है। पहले स्वयं देवसेना के जीवन रथ पर सवार है अब तो वह अपने दुर्बल शरीर से हारने की अनिश्चितता के बावजूद प्रलय से लोहा लेते रहती है। उसका पूरा जीवन ही दुख में है वह करुणा के स्वर में कहती है कि अंतिम समय में हृदय की वेदना अब उससे संभल नहीं पाएगी इसी कारण उसे मन की लाज गवानी पड़ रही है।

विशेष :
१ जीवन रथ में 'रूपक' अलंकार है।
२ 'पथ पर हारी होर' , ' लौटा लो' में अनुप्रास अलंकार है
३ प्रलय चल रहा अपने पथ पर में प्रलय का मानवीकरण हुआ है
४ माधुर्य गुण है व्यंजना शब्द शक्ति है।

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रविवार, 19 नवंबर 2017

हिन्द देश के निवासी सब जन एक हैं | hind desh ke niwaasi sabhi jan ek hai |

हिंद देश के निवासी सब जन एक हैं




हिंद देश के निवासी सब जन एक हैं
रंग रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं

१.बेला गुलाब जूही चंपा चमेली
प्यारे प्यारे फूल गुंथे
माला में एक हैं

2. कोयल की कूक प्यारी पपीहे की टेर न्यारी
गा रही तराना बुलबुल
राग मगर एक है

3. गंगा - जमुना ब्रहमपुत्र कृष्णा  कावेरी
जाके मिल गयी सागर में
हुई सब एक हैं

हिन्द देश के निवासी सब जन एक हैं
रंग रूप वेश भाषा चाहे अनेक हैं .


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रविवार, 15 अक्टूबर 2017

हिंदी रंगमंच और उसका विकास | hindi rangmanch , bhartendu , jayshankar prsaad ,mohan rakesh ,ipta ,

                            हिंदी रंगमंच और उसका विकास


हिंदी रंगमंच पृष्ठभूमि


हिंदी रंगमंच संस्कृत , लोक एवं पारसी रंगमंच की पृष्ठभूमि का आधार लेकर विकसित हुआ है। ध्यातव्य है कि भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में ' नाट्य ' शब्द का प्रयोग केवल नाटक के रूप में न  करके व्यापक अर्थ में किया है जिसके अंतर्गत रंगमंच , अभिनय , नृत्य , संगीत , रस , वेशभूषा , रंगशिल्प , दर्शक आदि सभी पक्ष आ जाते हैं। भारत में संस्कृत रंगमंच के पृष्ठभूमि में चले जाने के बाद भी लोक रंगमंचों  की परंपरा अत्यंत सुदृढ़ रही। नौटंकी , रासलीला ,रामलीला , स्वांग , नकल , खयाल , यात्रा , यक्षगान , नाचा , तमाशा आदि लोकप्रिय लोक - नाट्य रूप रहे हैं। इसी प्रकार पारसी रंगमंच की भी हिंदी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक भूमिका है। बलवंत गार्गी हिंदी रंगमंच का सूत्रपात पारसी रंगमंच से ही मानते हुए कहते हैं कि " जिस समय बंगाल में 1870 में व्यवसायिक थिएटर की नींव रखी जा रही थी , तब कुछ पारसी मुंबई में नाटक और ललित कलाओं में रुचि लेने लगे।  परिणाम यह हुआ कि पारसियों  ने व्यवसायिक हिंदी नाटक की स्थापना करने में पहल की " इस बात का समर्थन प्रसिद्ध नाट्य समीक्षक नेमिचंद्र जैन तथा अन्य विद्वान भी करते हैं।

हिंदी रंगमंच का प्रारंभ 1853 ईसवी में नेपाल के माटगांव में अभिनीत ' विद्याविलाप ' नाटक से माना जाता है। किंतु यह नेपाल तक ही सीमित रह गया। वस्तुतः हिंदी रंगमंच का नवोत्थान 1871 ईसवी में स्थापित ' अल्फ्रेड नामक मंडली ' से हुआ। जिसने भारतेंदु , राधाकृष्ण दास के नाटकों का मंचन प्रस्तुत किया। राधेश्याम कथावाचक इस मंडली के प्रमुख नाटककार थे। इस मंडली के मंच पर स्त्री चरित्रों की भूमिका पुरुष पात्र ही किया करते थे , इसी बीच कोलकाता के ' मॉर्डन थिएटर ' ने मुंबई की ' पारसी रंगमंच ' की ' इम्पीरियर ' आदि अनेक नाटक कंपनियों को खरीदकर कोलकाता को रंगमंच का केंद्र बना दिया। इन संस्थाओं के एकीकरण के कारण नारायण बेताब , आगा हश्र , तुलसीदत्त शैदा , हरिकृष्ण जौहर आदि अनेक नाटककारों का संगम स्थल कोलकाता का ' मॉडर्न थिएटर ' हो गया। मुंबई और कोलकाता के इन रंगमंच के एकीकरण मे हिंदी रंगमंच के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया।

हिंदी में अव्यवसायिक रंगमंच का सूत्रपात 1868 ईस्वी में बनारस थिएटर के साथ हुआ। 1884 में बनारस में ' नेशनल थियेटर ' की स्थापना हुई। भारतेंदु के अंधेर नगरी का प्रथम मंचन नेशनल थियेटर में ही किया था।

हिंदी रंगमंच के विकास में ' भारतेंदु नाटक मंडली ' (1906) की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है।इस मंडली ने लगभग डेढ़ दर्जन नाटकों का मंचन किया जिसमें ' सत्य हरिश्चंद्र ' , ' सुभद्रा हरण ' , ' चंद्रगुप्त ' , ' स्कंदगुप्त ' , ' ध्रुवस्वामिनी ' प्रमुख है।  इस नाटक मंडली ने भारतेंदु युगीन नाटकों के साथ - साथ प्रसाद के नाटकों को भी सफलतापूर्वक मंचित कर हिंदी के अपने स्वतंत्र रंगमंच के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंचित कर इस संस्था ने सिद्ध किया कि प्रसाद के नाटक पूर्णतः  अभिनेय  है। आगे चलकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ' विक्रम परिषद ' की स्थापना 1939 ईस्वी में हुई थी। इसने नाटकों में स्त्री पात्र के लिए स्त्रियों द्वारा ही अभिनय की परंपरा डाली।

हिंदी रंगमंच के विकास में ' बलिया नाट्य  समाज ' (1884) की भूमिका दी ऐतिहासिक मानी जाती है। 1884 ईसवी में यही पर भारतेंदु ने नाटक पर एक लंबा व्याख्यान दिया था। उसी समय ' सत्य हरिश्चंद्र ' तथा ' नीलदेवी ' नाटकों का मंचन किया गया था। उसी समय भारतेंदु ने हरिश्चंद्र की भूमिका निभाई थी। इस नाटक के मंचन को उस क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। इस संदर्भ में गोपालराम गहमरी ने लिखा है कि " पात्रों  का शुद्ध उच्चारण हमने उसी समय हिंदी में नाटक स्टेज पर सुना था। "

हिंदी रंगमंच के विकास में काशी के पश्चात इलाहाबाद के रंगमंच यो का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां के महत्वपूर्ण नाट्य मंच ' आर्य नाट्य सभा ' , ' श्री राम लीला नाटक मंडली ' तथा ' हिंदी नाट्य समिति ' थे। कानपुर की संस्थाओं ने भी हिंदी रंगमंच को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां के प्रमुख नाट्य मंच है -' भारत नाट्य समिति ' और ' भारतीय कला मंदिर '|  वर्तमान समय में कानपुर की ' कानपुर अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स ' तथा ' एंबेसडर ' संस्थाएं समकालीन नाटकों के मंचन  में महत्वपूर्ण' भूमिका निभा रही है। बिहार में ' पटना नाटक मंडली ' (1876) तथा ' अमेच्योर ड्रामेटिक एसोसिएशन ' उल्लेखनीय नाट्य मंच रहे है।

हिंदी रंगमंच का विकास महत्वपूर्ण प्रवृतियां


भारतेंदु युग


भारतेंदु युग में व्यापक पैमाने पर न सिर्फ नाट्य - लेखन हुआ बल्कि उनके  मंचन के लिए भी प्रेरणा मिली। स्वयं भारतेंदु नाट्य लेखन एवं अभिनय के केंद्र में एक संस्था की तरह कार्यशील थे। भारतेंदु से पूर्व भी पारसी रंगमंच व्यवसायिक स्तर पर सक्रिय था। भारतेंदु ने सक्रिय होकर पारसी रंगमंच के समानांतर एक अव्यवसायिक  रंगमंच का आरंभ किया। भारतेंदु ने हिंदी रंगमंच के विकास में परंपरा और आधुनिकता का समन्वय करते हुए संस्कृत नाट्य परंपरा के महत्वपूर्ण तत्वों को लोक नाट्य परंपरा के साथ समन्वित  करते हुए अपनी विशिष्ट प्रतिभा से हिंदी के अपने रंगमंच के विकास को तीव्र गति प्रदान की। उन्होंने पश्चिम की ग्रीक परंपरा को भी सीमित मात्रा में समाविष्ट किया। भारतेंदु ने अपने नाटकों को अधिकाधिक अभिनेय  बनाए जाने पर बल दिया। उन्होंने अपने नाटकों में पात्र योजना , भाषा , संवाद योजना ,में रंग संकेतों के माध्यम से अभिनेता का भी ध्यान रखा।

पारसी थियेटर


आज क्या बात अधिक उदारता से स्वीकार की जाने लगी है कि हिंदी रंगमंच के विकास में पारसी रंगमंच की भूमिका को कम करके नहीं आंका जा सकता। पारसी थियेटर शुद्ध व्यवसायिक थियेटर था , इसलिए उसने अपनी मौलिक रंग पद्धतियों का विकास किया।  इसमें अंग्रेजी की तुलना में भारतीय लोक रंग , शेरो - शायरी , उर्दू मिश्रित संवाद , भावुकता का आवेग , अतिनाटकीयता , गीत - संगीत की बहुलता , नृत्य , चमत्कारिक , ध्वनि - प्रभाव आदि पर अत्यधिक बल दिया गया। लक्ष्मीनारायण लाल लिखते हैं " आगा हश्र , राधेश्याम कथावाचक नारायण बेताब के नाटक पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र के दशक के लिए आकर्षण केंद्र थे। "
पारसी रंगमंच की मूल विशेषताएं निम्नलिखित थी -

१ रंगमंच को व्यवसायिक  रूप देकर प्रतिष्ठित करना और वेतन आधारित अभिनेताओं से कार्य कराना अर्थात रंगकर्म की स्वतंत्र सत्ता  स्थापित करना।

२ पूरी हिंदीभाषी जनता से संरक्षण प्राप्त करना और साहित्य व रंगमंच की दूरी को समाप्त करना।

३ रंगमंच की प्रवृत्ति के अनुकूल भाषा एवं अभिनय शैली पर बल देना।

द्विवेदी युग एवं छायावाद युग राष्ट्रीय आंदोलन के विकास के चरण थे जिसमें राष्ट्रीय संस्कृति एवं मर्यादा पर अधिक बल होने के कारण पारसी रंगमंच की व्यवसायिक पद्धतियों की तीव्र भर्त्सना की गई। लक्ष्मीनारायण लाल के शब्दों में " हिंदी ने अतिशुद्धि  एवं अर्थ - भावना के कारण पारसी रंगमंच को हिंदी का अपना नहीं माना और रंगमंच दर्शक , रंगमंच - नाटक , विषयवस्तु - नाटक, पाठक - दर्शक , व्यवसाय - साहित्य के बीच करीब पचास वर्षों का भयानक अंतराल पैदा कर दिया। "
किंतु पारसी रंग शैली को जनमानस में इतनी लोकप्रियता प्राप्त थी कि उससे भारतेंदु एवं प्रसाद अप्रभावित नहीं रह सके। दोनों ने पारसी रंगमंच की प्रतिक्रिया में लिखा लेकिन दोनों ने उसकी रंग - शैली , अभिनय - शैली और गीत संगीत के प्रभावों  को जाने अनजाने ग्रहण किया है।

प्रसाद की नाट्य दृष्टि और हिंदी रंगमंच का विकास-


प्रसाद के समक्ष मूल चुनौती हिंदी में गंभीर ऐतिहासिक सांस्कृतिक नाटकों की अनुपस्थिति की थी। उन्होंने गंभीर साहित्य नाट्य लेखन पर बल दिया एवं रंगमंच को निर्देशक एवं अभिनेता की प्रतिभा पर छोड़ दिया। उन्होंने साफ तौर पर कहा कि " नाटक के लिए रंगमंच होना चाहिए न कि रंगमंच के लिए नाटक " तब भी , उनके नाटकों में पर्याप्त रंग संकेत उपलब्ध हैं। पारसी रंगमंच की रंग पद्धतियों को अस्वीकार करते हुए भी प्रसाद ने उनसे पर्याप्त प्रभाव ग्रहण किया है। प्रसाद के नाटकों में कई जगह अतिनाटकीयता एवं गीतों की बहुलता पूर्णतः  पारसी रंगमंच के प्रभाव से है। प्रसाद ने पाश्चात्य रंग परिकल्पना से भी प्राप्त प्रभाव ग्रहण किया है , वस्तुतः नाटकों का वृहदाकार पात्रों की बहुलता , देशकाल का विस्तार , युद्ध , मृत्यु जैसे दृश्यों का समावेश पाश्चात्य नाट्य परंपरा से ही प्रेरित है। प्रसाद शेक्सपियर एवं बर्नार्ड शॉ के नाटकों से प्रभावित थे। दर्शकों की सांस्कृतिक अभिरुचियों के परिष्कार पर बल  रखने के कारण प्रसाद जी ने भारतीय नाट्यशास्त्र से भी अनेक तत्वों को ग्रहण किया है। निसंदेह हिंदी रंगमंच के विकास में प्रसाद की नाट्य दृष्टि की भूमिका को कम नहीं किया जा सकता। यह सही है कि अपनी कई संरचनात्मक विशेषताओं जैसे पात्र - बाहुलता , कठिन दृश्य योजना , अवांतर कथाओं की उपस्थिति , दर्शन के प्रक्षेपण आदि की वजह से प्रसाद के नाटक प्रायः  अभिनेयता के गुण से वंचित माने जाते हैं , किंतु कई रंग निर्देशकों जैसे इब्राहिम अल्काजी ने कहा है कि यह प्रसाद कि नहीं , हिंदी रंगमंच की कमी है कि वह प्रसाद के नाटकों के लिए अपेक्षित प्रयोगशीलता का प्रदर्शन नहीं कर सका। आगे चलकर मोहन राकेश ने भारतेंदु एवं प्रसाद की नाट्य दृष्टियों के समन्वय के आधार पर ही हिंदी के अपने स्वभाविक सांस्कृतिक रंगमंच के विकास पर बल दिया।

इप्टा


इप्टा अर्थात ' इंडियन पीपल थिएटर एसोसिएशन ' का जन्म देश की आजादी की लड़ाई और विश्वव्यापी फासीवाद विरोधी आंदोलन के गर्भ से हुआ था।  इसकी  स्थापना 25 मई 1943  को मुंबई में हुई थी। इसका नामकरण रोमा रौंला की पुस्तक ' पीपल थिएटर ' के आधार पर किया गया था। सन 1943 - 47 के दौरान इप्टा  की गतिविधियां अत्यधिक लोकप्रिय एवं देशव्यापी होने लगी थी। इन समूह ने प्रगतिशील नाटकों के मंचन पर बल दिया इसने लोक मंच के तत्वों को आत्मसात करते हुए नुक्कड़ नाटकों के मंचन को भी लोकप्रिय बनाया। हिंदी , उर्दू एवं अन्य भारतीय भाषाओं के भी सभी प्रगतिशील एवं वामपंथी लेखक , साहित्यकार , बुद्धिजीवी या तो प्रत्यक्षता इससे जुड़े थे या अप्रत्यक्ष रुप से इसके प्रशंसक थे। आजादी के बाद भी 1960 तक सैकड़ों प्रगतिशील नाटकों का मंचन इप्टा द्वारा किया गया। अली सरदार जाफरी , कैफ़ी आज़मी , राजेंद्र रघुवंशी , रामविलास शर्मा , रांगेय राघव , ख्वाजा अहमद अब्बास , उपेंद्रनाथ अश्क जैसी महान हस्तियां इप्टा  से जुडी थी। बलराज साहनी इप्टा  के एक महत्वपूर्ण अभिनेता थे। हिंदी रंगमंच को आम जनता के साथ जोड़े रखने में इप्टा की भूमिका ऐतिहासिक मानी जाती है एक ठहराव के बाद आज भी इप्टा समकालीन रंगमंच पर अपनी सक्रियता बनाए हुए हैं।

पृथ्वी थिएटर


1944 में पृथ्वीराज कपूर ने ' पृथ्वी थिएटर ' की नींव  रखी।  फिल्म से कमाई अपनी सारी आमदनी उन्होंने इस थिएटर में लगा दी।  इसकी स्थापना कर उन्होंने हिंदी रंगमंच को एक राष्ट्रीय स्वरुप प्रदान किया , साथ ही इप्टा  के साथ सहयोग करते हुए हिंदी रंगमंच की सामाजिक भूमिका को भी पहचाना और स्पष्ट किया। प्रख्यात जन कवि और नाटककार शील  पृथ्वी थिएटर को देश का राष्ट्रीय हिंदी रंगमंच मानते हुए पृथ्वीराज कपूर को सांस्कृतिक योद्धा बताया। 16 वर्ष तक पृथ्वी थिएटर ने पूरे भारत में नाटक मंचित किए इसमें कुल 8 नाटक थे - ' शकुंतला ' , ' दीवार ' , ' पठान ' , ' आहुति ' , ' कलाकार ' , ' पैसा ' , ' किसान ', ' दत्ता ' इनमें कुल  रंग सदस्यों की संख्या 80 से 90 थी। इसका वार्षिक बजट तीन से चार लाख रुपए का था और एक लाख रुपये की सहायता सरकार से मिलती थी। इस थियेटर  ने देशभर में अपनी प्रस्तुतियां दी। पृथ्वी थिएटर पारसी थियेटर के बाद ऐसा नाटक समूह था जो अपने नाट्य दल , रंग - सज्जा तथा रंग उपकरण के साथ उत्तर एवं दक्षिण भारत के सभी क्षेत्रों में यात्रा करता एवं प्रस्तुतियां देता था। इसमें पृथ्वीराज के अतिरिक्त जोहरा सहगल , राज कपूर , शम्मी कपूर , प्रेमनाथ , सुदर्शन सेठी और श्रीराम महत्वपूर्ण कलाकार थे। इनके नाटकों में साम्राज्यवाद विरोध , सामंतवाद विरोध , पूंजीवाद के विकृत रूपों का विरोध , हिंदू - मुस्लिम एकता आदि महत्वपूर्ण विषय होते थे।

पृथ्वी थिएटर आज भी सक्रिय है कपूर परिवार की संजना कपूर पृथ्वी थिएटर का संचालन आज भी पूरी प्रतिबद्धता एवं व्यवसायिकता  के साथ कर रही है। हाल ही में इस समूह में अखिल भारतीय नाट्य उत्सव का आयोजन किया था मुंबई और दिल्ली में आज भी यह समूह प्रतिवर्ष नाटकों का आयोजन करता है।

मोहन राकेश और हिंदी रंगमंच का विकास


मोहन राकेश की रंग - दृष्टि हिंदी रंगमंच के विकास में मील का पत्थर साबित करती है , उन्होंने पश्चिमी रंगमंच से पृथक हिंदी के नए एवं मौलिक रंगमंच की खोज करने का प्रयास किया। जहां पश्चिम का रंगमंच दृश्य - योजना और तकनीकी पर आधारित है उन्होंने हिंदी के लिए ऐसा रंगमंच बनाने की कोशिश की जो मानव तत्व और शब्द तत्व पर आधारित हो , ताकि कम से कम संसाधनों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट  प्रयोग किए जा सके। अपने पहले नाटक ' आषाढ़ का एक दिन ' की भूमिका में उन्होंने हिंदी के मौलिक रंगमंच के उद्देश्य की चर्चा की है वह लिखते हैं " हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक मूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करना होगा रंगों और राशियों के हमारे विवेक को व्यक्त करना होगा हमारे दैनंदिन जीवन के राग रंग को प्रस्तुत करने के लिए हमारे संदेशों और स्तंभों को अभिव्यक्त करने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है वह पाश्चात्य रंगमंच से कहीं दिन होगा। "

अपनी इसी रंग - दृष्टि को मोहन राकेश ने अपने सभी नाटकों ' आषाढ़ का एक दिन ' , ' लहरों के राजहंस ' तथा ' आधे अधूरे ' में प्रयुक्त किया।  यह रंग - दृष्टि मंच पर इतनी अधिक सफल रही कि इसमें हिंदी नाटक रंगमंच के नए मुहावरे गढ़ दिए। सिर्फ एक दृश्य के माध्यम से नाटक के सभी अंगो की प्रस्तुति , मंचीय संवादों के अतिरिक्त नेपथ्य से बहुत सी ध्वनियों का सार्थक प्रयोग , अभिनेताओं की आंगिक चेष्टाओं  के माध्यम से अकथनीय को भी कह देने की ताकत जैसी विशेषताओं ने मोहन राकेश की रंगमंचीय प्रयासों को यह अभूतपूर्व सफलता दिलाई।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय


भारत में रंगमंच के विकास को देखते हुए संगीत नाटक अकादमी द्वारा अप्रैल 1959 में ' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ' की स्थापना की गई। इस विद्यालय ने न सिर्फ देश की महत्वपूर्ण रंग प्रतिभाओं , निर्देशकों , अभिनेताओं को जन्म दिया है , बल्कि हिंदी के नाटकों के मंचन एवं रंगमंच के विकास में 1960  के बाद ऐतिहासिक दायित्व निभाया है। इस विश्वविद्यालय में रंग-मंडल की स्थापना 1964 ईस्वी में की गई जो उसका प्रदर्शन विभाग है। रंग-मंडल ने शैलीगत संगीत से लेकर भारतीय नाट्य की समकालीन कृतियों , अनुवादों और विदेशी भाषाओं के नाटकों के नाट्य रूपांतरण की 200 से अधिक प्रस्तुतियां की है। रंग- मंडल के साथ राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय ख्याति के प्रमुख रंग निर्देशकों ने काम किया है। रंग-मंडल भारत के मुख्य शहरों में प्रस्तुतियां तो करता ही है इसने विदेशों में भी कई प्रदर्शन किए हैं। इसके प्रथम निर्देशक ' इब्राहिम अल्काजी ' ने हिंदी नाटक और रंगमंच को नगण्य और उपेक्षित स्थिति से ऊपर उठाकर बड़े फलक पर प्रतिष्ठित करने का उल्लेखनीय कार्य किया , लेकिन कुछ नाट्य आलोचकों का मानना है कि राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पर पाश्चात्य रंग शैलियों का प्रभाव कुछ ज्यादा ही है। भारतीय नाटक की शास्त्रीय परंपरा और हिंदी प्रवेश की लोक परंपराओं की इसके द्वारा कई बार उपेक्षा हुई है। किंतु आधुनिक तकनीकों , प्रकाश एवं ध्वनि के इस्तेमाल में हिंदी रंगमंच के विकास को अंतरराष्ट्रीय स्तर प्रदान किया है। प्रसाद के जिन नाटकों को अनभिनेय  माना जाता था उनका सफल प्रदर्शन तकनीकी सामग्रियों के कारण संभव हो सका।

1999 इसवी मैं स्वर्ण जयंती के अवसर पर ' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ' ने भारत रंग - महोत्सव का आयोजन प्रारंभ किया। इस महोत्सव में विभिन्न राज्यों की राष्ट्रीय स्तर की प्रस्तुतियों को ' राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ' के सभी मंच पर प्रस्तुत किया जाता है। इन परिस्थितियों के कारण हिंदी रंगमंच पर अखिल भारतीय स्वरूप के विकास एवं संगठन में मदद मिली है।
कहना ना होगा की सांस्कृतिक औद्योगीकरण एवं कलाओं के तीव्र व्यवसायीकरण के दौर में हिंदी रंगमंच को संभाले एवं संगठित रखने में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की भूमिका ऐतिहासिक है।

अन्य संस्थाएं


आजादी के बाद हिंदी रंगमंच का व्यापक विस्तार हुआ प्रशिक्षित रंगकर्मियों के द्वारा प्रशिक्षण शिविरों और नाट्य प्रस्तुतियों ने अनेक नाटक संस्थाओं को जन्म दिया। दिल्ली में ' श्रीराम सेंटर ' ने हिंदी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हिंदी रंगमंच के केंद्र दिल्ली के साथ-साथ उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी फैलने लगे एवम नई प्रतिबद्धता के आधार पर नई-नई रंगमंच टोलियों का संगठन होने लगा। ' अभियान ' , ' देशांतर ' , ' थिएटर यूनिट ' , ' नया थिएटर ' , ' अनामिका '  , ' जननाट्य मंच ' , ' प्रयोग ' , 'दर्पण ' , ' रुपांतर ' , ' मेघदूत ' , ' प्रतिध्वनी ' आदि अनेक संस्थाओं ने हिंदी रंगमंच की नींव को मजबूत किया। वस्तुतः 1960 - 70 का समय रंगकर्म में क्रांति लहर की तरह था। सर्वश्रेष्ठ हिंदी नाटक इसी समय में रचे गए एवं मंचित हुए। आगामी रंगकर्म की पीठिका इसी समय तैयार हुई और भारतीय भाषाओं के नाट्य अनुवाद हिंदी रंगमंच पर और हिंदी नाटक भारतीय रंगमंच पर प्रस्तुत होने लगे। ' अभियान ' और ' देशांतर ' ने एक दशक तक हिंदी रंगमंच को कई सार्थक प्रस्तुतियां प्रदान की। इसी समय में बहुत से अभिनेता निर्देशक और विशिष्ट कलात्मक प्रतिभा के कारण प्रतिष्ठित हुए उदाहरण के लिए  ओम शिवपुरी  ,  सुधा शिवपुरी  , ब . व क्रांत , मोहन महर्षि , मनोहर सिंह , रामगोपाल बजाज , सुरेखा सीकरी , जोहरा सहगल आदि ने अभिनय निर्देशन वह नाट्य लेखन के क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित किए।

हिंदी रंगमंच के विकास में हबीब तनवीर एवं उनकी नाट्य संस्था ' नया थियेटर ' की ऐतिहासिक भूमिका है। उन्होंने अपने नाटकों की प्रस्तुति के माध्यम से हिंदी रंगमंच को लोक परंपराओं से संपर्क करते हुए उसे विश्व रंगमंच पर भी प्रतिष्ठा दिलाई।

1967 से 1977 तक का समय हिंदी नाटक और रंगमंच का अत्यंत सक्रियता और गतिविधियों से भरपूर रहा रंगकर्म की तीव्र गति प्रयोगशीलता और उत्साह ने नवीन कृतियों में नवीन संभावनाओं की तलाश की और विभिन्न देशी - विदेशी कृतियों के अनुवादों और उसके नाट्य रूपांतरण पर ध्यान केंद्रित हुआ।  बंगाल , मराठी , गुजराती , कन्नड़ , तेलुगू , मलयालम के साथ साथ फ्रेंच , जर्मनी , अंग्रेजी , रूसी आदि भाषाओं की श्रेष्ठतम नाट्य कृतियों के अनुवाद तीव्र गति के साथ शुरू हुए जिससे दूसरी भाषाओं की नाटक कृतियां और शैलियां हिंदी नाटक और रंगमंच पर आई।


हिंदी रंगमंच के विकास में नुक्कड़ नाटक की भूमिका


छठे दशक में ही हिंदी रंगमंच को भारतीय रंगमंच में छाए पश्चिमी थिएटर के प्रभावों के विरुद्ध अपनी परंपराओं की ओर लौटने की जरूरत महसूस हुई आम जनता तक और अधिक व्यापक पहुंच सुनिश्चित करने  हेतू और एक आम बोलचाल की भाषा में जनसमस्याओं को संबोधित करने की जरूरत ने नुक्कड़ नाटकों के प्रयोग को अपरिहार्य बना दिया। ब्रेख्त  और ग्रोटोवस्की के विचारों और पश्चिम के ' स्ट्रीट थिएटर ' में भी हिंदी में नुक्कड़ नाटकों के मंचन को प्रेरणा प्रदान की। देशव्यापी परिस्थितियों के बदलने से आम जनता के शोषण में वृद्धि और जन संघर्ष की जो अभिव्यक्ति साहित्य और कलाओं में उभर रही थी। उसको नाटकों के माध्यम से प्रस्तुत करने में नुक्कड़ नाटकों का कोई सानी न था। परंपरागत भारतीय लोक मंचों की सादगी , उन्मुक्तता , लचीलापन , संगीतात्मकता , सामूहिकता , आर्थिक न्याय में कमी आदि ने नुक्कड़ नाटकों को और अधिक लोकप्रिय बनाया।

हिंदी के नुक्कड़ नाटक निश्चित तौर पर इप्टा की प्रगतिशील विचारधारा एवं वामपंथी राजनीतिक साहित्यिक विचारधारा से ग्रहण रूप से संबंध रहे हैं। नुक्कड़ नाटकों में समसामयिक , राजनीतिक , सामाजिक , सांस्कृतिक मुद्दों पर आधारित नाटकों का मंचन के लिए वरीयता दी जाती रही। नाटक एवं जनता के बीच की दूरी को समाप्त करने में नुक्कड़ नाटक टोलियां वर्षों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाती रही है। एक और प्रेमचंद एवं अन्य लेखकों की कहानियां नुक्कड़ मंच का मुख्य केंद्र बन गई , दूसरी और कोई प्रतिबध नाटककार भी नाट्य लेखन करते रहे। गुरुशरण सिंह , सफदर हाशमी , राधा कृष्ण सहाय , विभु कुमार आदि के अतिरिक्त कई नए नाटककार भी इस दिशा में सक्रिय हुए। दरअसल नुक्कड़ मंच सामाजिकता एवं राजनीतिक साझीदारी और दायित्व की बात उठाता है। उसका दर्शक समूह , सड़क चलते लोग , दफ्तरों कारखानों से निकले कर्मचारी , मजदूर , विश्वविद्यालयों के विद्यार्थी आदि होते हैं। यह 30 से 40 मिनट में जानी-पहचानी घटनाएं एवं स्थितियों के कई तनावपूर्ण पहलुओं को उजागर करके दर्शक को उकसाना और प्रेरित  करना चाहता है। उसकी भाषा , उसके छोटे - छोटे दृश्य , तीव्रता , प्रखरता , प्रत्यक्ष साझेदारी , गीत - संगीत , एक्शन , व्यंग्य एवं वक्रोक्ति , प्रभावशाली संवाद आदि मौलिकता के आधार है। लोक नाटकों की तरह लचीलापन और परिवर्तनशीलता इसकी खासियत है। दिल्ली में नुक्कड़ नाटक को लोकप्रिय बनाने में ' सफदर हाशमी ' की भूमिका अविस्मरणीय मानी जाती है। भारत के लगभग सभी प्रमुख शहरों कि अपनी-अपनी नुक्कड़ टोलियां है , और आज भी यह जनता एवं नाटक के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी के रुप में सतत क्रियाशील है।

हिंदी रंगमंच के विकास में लोक नाट्य शैली एवं शास्त्रीय शैलियों के प्रयोग।


जब हिंदी रंगमंच पश्चिमी रंग प्रयोगों और शैलियों से उठ चुका था तो हिंदी की अपनी स्वाभाविक सांस्कृतिक प्रकृति के अनुरूप रंगमंच का अन्वेषण करने के प्रयासों में 1976 से 77 के आसपास एक अलग किस्म की सक्रियता दिखाई पड़ी। इसी समय सर्वेश्वर के ' बकरी ' और मणि मधुकर के ' दुलारी बाई ' जैसे नाटकों के देश के कोने - कोने में नौटंकी , ख्याल जैसे लोकनाट्य रूपों में और साथ ही पारसी रंगमंच एवं आधुनिक रंगमंच के प्रयोग में सैकड़ों मंचन हुए उनका उपयोग नाटक प्रशिक्षण शिविरों के लिए भी हुआ और बड़े-बड़े समारोह के लिए भी। राष्ट्रीय फलक पर हबीब तनवीर छत्तीसगढ़ी लोकनाटय रूपों का आधुनिक संदर्भ में सृजनात्मक उपयोग अपने ' चरणदास चोर ' जैसे नाटक कर रहे थे। इसी दौरान में  ' ब  व क्रांत ' ने दक्षिण की यक्षगान शैली के बहुत ही सार्थक प्रयोग ' अंधेर नगरी ' एवं ' हयवदन ' में किए। बंसी कौर , रतन थिय्याम  ने भी  नौटंकी एवं मणिपुर , असम की लोक नाट्य शैलियों का प्रयोग किया। दूसरी तरफ संगीत नाटक अकादमी ने भी अपने उत्सवों में लोक नाट्य रूपों में के प्रयोग को प्रोत्साहित करना शुरू किया।

रंगमंच के नए मुहावरों एवं शैलियों की तलाश


किसी भी अच्छे रंगमंच के विकासमान रहने के लिए शिल्प उपकरणों एवं आधुनिकता आवश्यक है , किंतु यह भी सही है कि श्रेष्ठ रंगमंच की पहचान व स्थायित्व अपनी मौलिकता अपने संस्कारों विरासत एवं जीवन दर्शन से बनती है। आधुनिक रंगमंच भी चाहे वह ब्रेकअप का हो चाहे गॉष्टावस्की  का चाहे बादल सरकार का हो चाहे अन्य किसी प्रतिष्ठित निर्देशकों का। वस्तुतः वह  अभिनेता की शक्ति में ही विश्वास रखता है। बाह्य उपकरणों में नहीं भरतमुनि का नाट्यशास्त्र में भी यही दृष्टि प्रस्तावित है।
1980 के आसपास से हिंदी नाटक एवं रंगमंच सारी जटिलताओं , विसंगतियों के बावजूद अधिक सार्थक प्रासंगिक जीवंत एवम मौलिक और साथ ही भारतीय मुहावरे की तलाश करने लगे। सुरेंद्र वर्मा के प्रयोगशील नाटक भारतीय रंगमंच की अवधारणा के निकट आते प्रतीत हुए ' अनामिका ' द्वारा नाट्यशास्त्र पर संवादरतन थियम द्वारा मणिपुरी शैली में ' अंधा युग ' का प्रस्तुतीकरण सिद्ध करता है कि भारतीय रंगमंच अपने को एक और लोक शैलियों से , तो दूसरी ओर शास्त्रीय शैलियों से जोड़कर हिंदी रंगमंच को लगातार नवीनीकृत एवं प्रसांगिक बनाने हेतु संघर्षरत रहा है। 

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बुधवार, 12 जुलाई 2017

भारत दुर्दशा की संवेदना |भारतेंदु | bhartendu harshchand | नवजागरण |भारत दुर्दशा का कारण| bhart durdasha natak|

                      भारत दुर्दशा की संवेदना पर प्रकाश डालिए

मुख्यतः  नाटक का आरंभ भारतेंदु युग से माना जाता है। भारतेंदु से पूर्व खड़ी बोली की प्रधानता थी। गद्य के विकास में कलकत्ता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका रही। भारतेंदु का काल नवजागरण के नाम से भी जाना जाता है। नवजागरण की विशेषता आत्मअवलोकन तथा स्वयंमूल्यांकन की थी। नवजागरण का कारण था सामूहिक चेतना , सांस्कृतिक चेतना। नाटक सामाजिक कला है। अतः नवजागरण काल में नाटक की अहम भूमिका थी।

नाटक को लेकर अभी भी विवाद है कि प्रथम नाटक कौन सा है 
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आनंद रघुनंदन ,
डॉक्टर दशरथ ओझा के अनुसार संदेशरासक और 
भारतेंदु के अनुसार नहुष  

हिंदी का प्रथम नाटक है। अतः भारतेंदु ने अपने नाटक में प्राचीन परंपरा और नवीनता का समावेश किया है। भारतेंदु ने 30 वर्ष की अल्प आयु में हिंदी साहित्य को नवीन दिशा प्रदान की , उनका काल 1850 से 1900  तक माना जाता है। उनके  
महत्वपूर्ण नाटक निम्नलिखित है-
अंधेर नगरी
भारत दुर्दशा
मुद्राराक्षस
सत्य हरिश्चंद्र
वैदिक हिंसा हिंसा न भवति
नीलदेवी आदि

भारत दुर्दशा भारतेंदु जी की सफल कृति  है इसका अंदाजा इसके मंचीयता  से लगाया जा सकता है। इस नाटक का सफल मंचन किया जा चुका है। यह नाटक आज भी दर्शकों को प्रभावित करने में सक्षम है। भारत दुर्दशा के सभी पात्र प्रतिकात्मक हैं उनके पात्र भारत दुर्देव , मदिरा लोभ , अहंकार , सत्यानाशी फौज आदि है।
भारतेंदु का यह नाटक अपनी यूगिन समस्याओं को उजागर करता है ,उसका समाधान करता है। भारत दुर्दशा में कवि ने अपने सामने प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली वर्तमान लक्ष्यहीन पतन की ओर उन्मुख भारत का वर्णन किया है। नाटककार के लिए भारत की परतंत्रता  से ज्यादा भारतीय समाज की पतनोन्मुख ता सोचनीय है। भारतेंदु ऐसे समय में आए जब अंग्रेजी शासन और नवाबी राज्यों में हिंदुओं का सम्मान सुरक्षित नहीं था। उनका धर्म अपनी रक्षा के लिए तरस रहा तथा हिंदुओं ने अपने धर्म की रक्षा का कई प्रयत्न किया किंतु वह असफल रहा पूर्व का समय मुगलों का था जो मुस्लिम थे उन्होंने अपने धर्म का प्रचार प्रसार किया हिंदुओं का धर्म बलात परिवर्तन कराया गया ।
हिंदू स्त्रियों का गौरव भी संकटग्रस्त था अंग्रेजी राज ने इस संकट को दूर किया इसलिए कई स्थानों पर अंग्रेजी राज्य को भारत दुर्दशा में कई स्थानों पर एक सकारात्मक दृष्टि से भी देखा गया है -

"हे भगवती राजराजेश्वरी इसका हाथ पकड़ो"

डॉक्टर रामविलास शर्मा के अनुसार -
                                 "भारतेंदु ने अपने नाटक साहित्य के जरिए इतिहास ,पुराण और वर्तमान जीवन के विविध स्रोतों को नया आयाम प्रदान किया है। इतना ही नहीं उन्होंने अपने नाटकों के माध्यम से नई हिंदी को लोकप्रिय बनाया। पारसी रंगमंच का विशेष लोकप्रियता तथा प्राचीन नाटकों के उद्धार किया  गेआत्मक प्रस्तुतिकरण किया।'

बाबू गुलाब राय ने
                    'भारत दुर्दशा को दुखांत माना है भारत दुर्दशा नाटक के संबंध में आपत्ति की है कि वह दुखांत  है और इसमें आशा का कोई संदेश नहीं है , कवी  का उद्देश्य जागृति /उत्पन्न करना था व आशा और उत्साह द्वारा हो  चाहे करुणा के द्वारा।'

राम चंद्र शुक्ला ने
                'भारतेंदु को लल्लूलाल व इंशा अल्लाह खान की अगली पीढ़ी मान उसको उत्तराधिकारी माना है।'





भारत दुर्दशा का कारण

भारतेंदु ने भारत दुर्दशा का कारण सामाजिक विकृतियों को माना। लोगों में व्याप्त हालत व रूढ़िवादी सोच को माना है। लोगों के निराशावादी ,लक्ष्यहीन ,व  पत्तनों उन्मुखी सोच ,को भारतेंदु ने भारत दुर्दशा का कारण माना  व समाज में जो आर्थिक संरचना धार्मिक संरचना है वह समाज की नींव को  खोखली कर रही है। आपस में भेदभाव व जाति का  वर्गीकरण आपसी मनमुटाव स्वार्थ परखता ,लोग भारत की दुर्दशा का कारण है। भारत सदैव धार्मिक व अंधविश्वास की रूढ़ियों व परंपरा मान्यताओं से ग्रसित रहा है ,जिसके कारण एक धर्म दूसरे धर्म को नीचा दिखाने के लिए आपस में लड़ता रहा। जिसके कारण विदेशियों का भारत में आगमन हुआ और सारे विनाश का कारण बना।
" हरि वैदिक जैन डुबाई पुस्तक सारी ।
करी कलह बुलाई जवन सैन पुनि  भारी।।"

समाज का एक बड़ा तबका आलसी ,अशिक्षित वह कमजोर का है जो अपनी पुरानी सड़ी-गली मान्यता को ढो  रहा  है। वह अपने तक ही केंद्रित है दूसरा वर्ग इस समाज का निरंतर शोषण करता रहा है। किंतु यह उस परंपरा का विरोध नहीं करते वह निराशावादी वह भाग्यवादी होते जा रहे हैं। यही  कारण है कि कुमति व आलस का वर्चस्व समाज में बढ़ते जा रहा है-

" तीन नासी बुद्धि बल विद्या ,धन बहू बारी ।
छाई अब आलस -कुमति -कलह -अंधियारी ।।
भय अंध पंगु सब दीन-हीन बिखलाई ।
हा! हा !भारत दुर्दशा ना देखी जाई।।

भारतेंदु जी को निराशा होती है समाज के भाग्यवादी व लक्ष्यहीन पतनशीलता की ओर अग्रसर प्रगति पर। वह समाज को अपने भविष्य के गौरव की ओर इशारा करते हैं कि अपने यहां अर्जुन ,कृष्ण ,भीम , आदि जैसे पराक्रमी शूरवीर योद्धा हुए और आज उस समाज की यह दुर्दशा! समाज में भारतेंदु ने तब अपनी आवाज बुलंद की जब समाज  ने सती प्रथा , बाल विवाह  ,गौ हत्या , आदि जैसी बड़ी आपदाओं ने अपने जड़ पसार लिए थे। भारतेंदु ने इस परंपरा मान्यता का खंडन किया भारत दुर्दशा का कारण जहां धर्म , कर्म - काण्डीय  रहा वही सबसे बड़ा कारण आलस्य ,असंतोष भी रहा। मदिरा ,अंधकार ने  भी भारत को पर्याप्त मात्रा में दुर्दशा की ओर किया। सभी लोग मदिरा के प्रेमी हो गए देश के सभी लोग चाहे अफसर हो वकील हो सभी मदिरा का सेवन करते उसके प्रभाव से कोई भी नहीं बच सका भारतेंदु व्यंग करते हैं-
"मदवा पीले पागल जीवन बित्यो जाए ।
बिनु मद जगत सार कुछ नहीं मान मेरी बात।"

अंग्रेजी राज की समीक्षा

                         भारतेंदु ने जगह-जगह पर अंग्रेजी राज की विवेचना की है क्योकि अंग्रेजी राज के  आने से सती प्रथा , बाल विवाह आदि जैसी कुरीतियों का सफाया हो सका। शिक्षा  का प्रकाश भी पश्चिम से ही आया। अतः भारतेंदु ने कई स्थानों पर अंग्रेजी राज को भारत का हितकर भी माना-

" हाय भारत भैया उठो देखो विद्या का सूर्य पश्चिम से उदय हुआ चला आता है अब सोने का समय नहीं है। 


किंतु भारतेन्दु  ने उनकी निंदा भी की ,उनके विचारों व मान्यताओं का खंडन भी किया। अंग्रेज अपने हितकर नहीं है वह एक लूट के उद्देश्य से भारत में आए ,यहां का कच्चा माल अपने देश ले जाकर वहां से उनका महंगे दामों में सौदा किया। भारतीय किसानों पर  रीड तोड़ने वाला लगान लादा। गया यहां की जनता पर निरंतर अत्याचार किया गया -

"अंग्रेज राज सुख साज सजे सब भारी 
पै धन विदेस  चलि जात यह अति ख्वारी 
ताहू पर महंगी काल रोग विस्तारी 
दिन दिन दुख  इस देत  हा हा री 
सब के ऊपर टिक्क्स  की आफत आई 
हा हा भारत दुर्दशा न देखी जाई  "।। 

अतः भारतेंदु ने अपने आलोचकों का प्रतिरोध किया जो उन पर अंग्रेज का प्रशंसक होने का आरोप लगा रहे थे। 

इतिहास व पौराणिक मान्यताओं का बोध

भारतेंदु ने समाज को जागरुक करने के लिए इतिहास , पुराण का सहारा लिया। उनके आलोक से समाज को परिचित कराया।  भारतेंदु ने अपने कुछ नाटकों की रचना तो पुराणों के आधार पर किया तो कुछ नाटकों की रचना इतिहास के आधार पर। भारत - दुर्दशा भारतेंदु का मौलिक नाटक है, किंतु इसमें भी पौराणिक व ऐतिहासिक तथ्य समाहित है। भारतेंदु अतीत के गौरव से समाज के पराजित मनोवृति को सहला रहे थे। 


सबके पाहिले  जेहि  ईश्वर धन - बल दीनो।  
सबके पहले जेहि  सभ्य विधाता कीन्हो।।


भारत - दुर्दशा में पुराण को भी आधार बनाकर समाज को जागरुक किया। उन्होंने राम ,युधिष्ठिर ,भीष्म ,भीम ,कर्ण , अर्जुन , कृष्ण आदि की भी मिसाल पेश की कि वह हमारे अतीत में अपने पराक्रम की पताका फैला रहे थे ,जो भारत कभी ईश्वर का प्रिय था सोने की चिड़िया थी आज वहां की यह दुर्दशा।
अतः भारतेंदु ने इतिहास पुराण आदि का सहारा लेकर समाज को जागरुक करने के का सार्थक प्रयत्न किया यही से स्वतंत्रता की नींव पड़ी जो एक चिंगारी का रूप धारण कर लोगों के बीच आग जलाने का कार्य कर रही थी।


समाधान संकेत
भारतेंदु ने भारत - दुर्दशा में प्रतिकात्मक पात्रों की सहायता से दुर्दशा के कारणों की खोज की ,पहचान किया। जिसमें सबसे बड़ा कारण मदिरा , लोभ , अशिक्षा को माना उसकी पहचान कर भारतेंदु ने उसका साथ छोड़ने का आग्रह किया। यह सभी वास्तव में आज समाज की जड़ें खोखली करने में अहम भूमिका निभा रही है। भारतेंदु ने जगह-जगह मदिरा व निर्लज्जता के माध्यम से समाज में एक निश्चित ही सार्थक संदेश दिया जो सर्वनाश का कारण है। उसके साथ न जाने का आग्रह किया। समाज में असंतोष ,लज्जा ,मदिरा दुर्देव  आदि ने अपनी जड़ें इतनी जमा रखी है कि भारत भाग्य अपनी तमाम कोशिशों के बाद भी सफल नहीं हो पाता और अंत में कटार मारकर आत्महत्या कर लेता है। 


निष्कर्ष

तो हम कह सकते हैं कि भारत दुर्दशा भारतेंदु युग का दस्तावेज है इसमें वर्तमान सामाजिक ,राजनीतिक व आर्थिक स्थिति स्पष्ट रूप से वर्णित है। यह नाटक भारतीय संवेदना को व्यक्त करने में सफल रही है नवजागरण के दौर में भारत दुर्दशा ने एक मशाल की भूमिका निभाई जिसमें भारतीयों की लक्ष्यहीन पतन मुखी सोच को नई दिशा प्रदान की। 





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मंगलवार, 30 मई 2017

रस के अंग और भेद | रसराज | संयोग श्रृंगार

                                      रस के अंग और भेद

1 श्रृंगार रस
            श्रृंगार रस को रसराज माना गया है ,  क्योंकि यह अत्यंत व्यापक रहा है श्रृंगार शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है श्रृंग + आर ।  'श्रृंग' का अर्थ है "कामोद्रेक" ,  'आर' का अर्थ है वृद्धि प्राप्ती अतः श्रृंगार का अर्थ हुआ कामोद्रेक की प्राप्ति या विधि श्रृंगार रस का स्थाई भाव दांपत्य प्रेम है । पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका कि प्रेम की  अभिव्यंजना की श्रृंगार रस की विषय वस्तु है प्राचीन आचार्यों ने स्त्री पुरुष के शुद्ध प्रेम को ही रति कहां है।
इस परकीया प्रिया - चित्रण रस ना कहलाकर रस आभास कहलायेगा श्रृंगार रस में इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि उसमें अश्लीलता का समावेश न होने पाए। श्रृंगार रस के संयोग और वियोग दो प्रमुख भेद होते हैं इन दोनों के अंतर्गत जीवन के न जाने कितने क्रियाकलाप सुख कारण का  भाव वेदनाएं स्थान पाते हैं इसको विस्थापन की कोई सीमा नहीं है इसी कारण ही इसे रसराज कहा जाता है जो प्रेम जीवन के संघर्षों में खेलता है कष्टों में पलता है जिसमें प्रिय के प्रति मंगलकामनाएं प्रकट होती है  वह प्रेम ही उदास श्रृंगार रस का विषय बनता है ।
श्रृंगार रस को निम्न उदाहरण के द्वारा भी प्रस्तुत किया जा सकता है -

1 संयोग श्रृंगार -
               संयोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका की मिलन अवस्था का चित्रण किया जाता है।
उदाहरण :-
'में निज आलिन्द में खड़ी थी सखी एक रात,
रिमझिम बूंदें पढ़ती थी घटा छाई थी ,
गमक रही थी केतकी की गंध ,
चारों और झिल्ली झनकार ,
वही मेरे मन भाई थी। '
--------------------------------------------------------------
चौक देखा ! मैंने चुप कोने में खड़े थे प्रिय ,
माई मुख लज्जा उसी छाती में छुपाई थी।
                                                     साकेत
यहां पर 

आश्रय                उर्मिला
आलंबन              लक्ष्मण
स्थाई भाव            रति (प्रेम )
उद्दीपन                केतकी की गंध
                          रिमझिम बरसा
                          झिल्ली की झंकार
                          बिजली का चमकना आदि
संचारी                 हर्ष, धैर्य,लज्जा ,रोमांच,
अनुभाव              नुपुर का बजना
                         छाती से लगा लेना आदि।
इस प्रकार यह संयोग श्रृंगार का पूर्ण परिपाक है।

वियोग श्रृंगार 

                  वियोग श्रृंगार वहां होता है जहां नायक-नायिका में परस्पर प्रेम होने पर भी मिलन संभव नहीं हो पाता प्राचीन काव्य शास्त्र ने वियोग के चार भाग किए हैं :-

1 पूर्व राग                     पहले का आकर्षण
2 मान                          रूठना
3 प्रवास                       छोड़कर जाना
4 करुण विप्रलंभ            मरने से पूर्व की करुणा ।
पूर्व राग
         पूर्व राग मे विवाह या मिलन से पूर्व का जो आकर्षण होता है जैसे रामचरितमानस में पुष्प वाटिका का प्रसंग ।
मान
     आशा के प्रतिकूल बात होने पर जब स्वाभिमान जागृत होता है तब मान की दशा होती है जैसे कृष्ण का दूसरे गोपियों के साथ रास रचाना और उनपर राधा का रूठना।

प्रवास
         वियोग की पूर्वअवस्था प्रिय के प्रवास पर ही होती है और विशेष रूप से जब आने की भाषा होती है और वह नहीं आता तो वियोग और गहरा हो जाता है ।
मानस मंदिर में सती , पति की प्रतिमा थाम ,
चलती सी उस विरह में बनी आरती आप ,
आंखों में प्रिय मिलती थी ,
भूले थे सब भोग हुआ विषम से भी अधिक उसका विषम व योग ।
यहां
आश्रय                            उर्मिला
आलंबन                          प्रवास रत लक्ष्मण
उद्दीपन                           आंखों में प्रियतम की मूर्ति
अनुभाव                          भोगों का परित्याग
                                     स्वामी का ध्यान
संचारी                            स्मृति ,जड़ता ,धैर्य ,आदि ।
इन सब के संयोग से लक्ष्मण विषय रति भाव वियोग रस में परिणीत हुआ है ।




 करुण विप्रलंभ

               करुण विप्रलंभ वहां होता है जहां प्रेमी या प्रेमिका में से किसी एक दिवंगत होने की पूरी संभावना पर भी जीवित होने की आशा बची रहती है|  जिसमें अपने प्रिय के प्रति हृदय में करुणा से भरी शोक धारा प्रवाहित होती है और मिलन की आशा बनी रहती है |

2  हास्य रस

          हास्य रस का स्थाई भाव  ' हास्य 'है साहित्य में हास्य रस का निरूपण बहुत ही कठिन कार्य होता है क्योंकि थोड़ी सी असावधानी से हास्य फूहड़ मजाक में बदल कर रह जाता है ।  हास्य रस के लिए उक्ति व्यंग्यात्मक होना चाहिए हास्य और व्यंग्य दोनों में अंतर है दोनों का आलंबन विकृत या अनुचित होता है लेकिन हास्य  हमें जहां आता है वही खिलखिला  देते हैं लेकिन जहां व्यंग्य आता है वहां चुभता है और सोचने पर विवश करता है ।


'अपने यहां संसद तेली की वह धानी जिसमें आधा तेल है और आधा पानी,
 दरअसल अपने यहां जनतंत्र एक ऐसा तमाशा है जिसकी जान मदारी की भाषा है।।'



  यहाँ

आश्रय                     पाठक और श्रोता गण है
आलंबन                   संसद ,जनतंत्र का तमाशा
अनुभाव                    वर्तमान स्थिति और         उसकी                    विडंबना कहीं जा सकती है।

3  करुण रस 

              भवभूति करूण रस को एक मात्र रस मानते थे । एकोरसः करुण मानते थे वह करुण रस के दो भेद करते हैं
1 स्वनिष्ठ 
2 परनिष्ठ

 करुण रस में हृदय द्रवित हो कर स्वयं उन्नत हो जाता है  भावनाओं का ऐसा  परीसपाद होता है कि अन्य रस तरंग किया बुलबुले के समान बहने लगते हैं इसका स्थाई भाव ' शौक 'है करुण रस लीन मग्न होकर हमारी मनोवृत्तियों स्वच्छ होकर निर्मल हो जाती है।

 उदाहरण 

 मेरे हृदय के हर्ष हा!अभिमन्यु अब तू है कहां ,
दृग खोलकर बेटा तनिक तो देख हम सब को यहां मामा खड़े हैं पास तेरे तू यहीं पर है पड़ा ।।

 यहां पर 
स्थाई भाव                      शौक 
आश्रय                           द्रोपदी है 
आलंबन                        अभिमन्यु 
उद्दीपन                           मृत शरीर 
अनुभाव                        अभिमन्यु को आंख खोलकर देखने के लिए कहना ,गुरुजनों का मान रखना ,स्मृति, आवेग, जड़ता।

 इस प्रकार विभाव अनुभाव संचारी भाव के करुण रस का सुंदर भाव प्रकट हुआ है ।


4  वीर रस 

       समाजिकों के हृदय में वासना रुप से विद्यमान उत्साह स्थाई भाव काव्यों आदि में वर्णित विभाव अनुभाव संचारी भाव के संयोग से जब रस अवस्था में पहुंचकर आस्वाद योग्य बन जाता है तब वह वीर रस कहलाता है । इसकी मुख्यता चार प्रवृत्ति है 

1 दयावीर 
        दयावीर भाव की अभिव्यक्ति वहां होती है जहां कोई व्यक्ति किसी दिन दुखी पीड़ित जन को देखकर उसकी सहायता करने में लीन हो जाता है । जैसे - 

' देखि सुदामा की दीन दशा करुण करके करूणानिधि रोए ' ।

2  दानवीर 
         इसके आलंबन में दान प्राप्त करने की योग्यता का होना अनिवार्य है

' क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात का रहीम हरि को गए जो भिक्षु मारी लात  ' ।



धर्मवीर 
               इसके स्थाई भाव में धर्म स्थापना का उद्देश्य प्रमुख होता है दूसरों से धर्म की महत्ता का ज्ञान प्राप्त करना अपनी टेक (प्रतिक्रिया ) का पालन करना इस में प्रमुख रुप से व्याप्त होता है।  

4 युद्धवीर 
           काव्य में सबसे अधिक महत्व युद्धवीर का है लोक में  भी वीर रस से तात्पर्य युद्धवीर से ही लिया जाता है इसका स्थाई भाव 'शत्रुनाशक उत्साह ' है 

मैं सच कहता हूं सखे ,सुकुमार मत जानो मुझे,
 यमराज से भी युद्ध को प्रस्तुत सदा जानो मुझे ,
है और उनकी बात क्या गर्व मैं करता नहीं ,
मामा और निजी ताज से भी समर में डरता नहीं।।

 यह उक्ति अभिमन्यु ने अपने साथी को युद्ध भूमि में कही है।

 यहां 

आलंबन                          गौरव 
विभाव                     द्रोणाचार्य द्वारा चक्रव्यूह रचना
उद्दीपन विभाव            अर्जुन की अनुपस्थिति 
अनुभाव           अभिमन्यु का उत्साह पूर्ण का वाक्य संचारी भाव        हर्ष ,गर्व ,घृत ,आदि।

 इन सभी के संयोग से उत्साह नामक स्थाई भाव वीर रस में परिपक्व हुआ है।

5 भयानक रस 

               विभाव , अनुभाव एवं संचारी भावों के प्रयोग से जब सर्व हृदय समाजिक के हृदय में विद्यमान है स्थाई भाव उत्पन्न हो कर या प्रकट होकर रस में परिणत हो जाता है तब वह भयानक रस होता है वह की  वृत्ति बहुत व्यापक होती है यह केवल मनुष्य में ही नहीं समस्त प्राणी जगत में व्याप्त है।

 एक और अजगरही लाखी एक और मृगराही 
विकट बटोही बीच ही परयो मूरछा खाई ।।

 यहां 
आलंबन                     अजगर और शेर 
विभाव                        उनकी चेष्टाएं 
उद्दीपन विभाव              बटोही 
आश्रय                          मूरछा 
अनुभाव संचारी भाव       त्रास, विशद् आदी 

इन सभी के सहयोग से भयानक स्थाई भाव भयानक रस में परिणत हुआ है ।

6   रौद्र रस 

            इसका स्थाई भाव क्रोध है विभाव अनुभाव और संचारी भावों के सहयोग से वासना रूप में समाजिक के हृदय में स्थित क्रोध स्थाई भाव आस्वादित होता हुआ रोद्र रस में परिणत हो जाता है ।

 श्रीकृष्ण के सुन वचन अर्जुन क्षोभ से जलने लगे ।
सब शोक अपना भूलकर तल युगल मलने लगे ।
संसार देखें अब हमारे शत्रु रण में मृत पड़े ।
 करते हुए यह घोषणा वह हो गए उठ खड़े ।।

 यहां 
आलंबन             अभिमन्यु के वध पर कपटी, दुराचारी       अन्याय को रोका हर्ष प्रकट करना है 
उद्दीपन               श्री कृष्ण के वचन 
अनुभाव              अर्जुन के  वाक्य क्षोब से जलना     आंखें लाल होना हाथों को मला आदि 
संचारी भाव         उग्रता, आवेद ,चपलता ,आदि के संयोग से रोद्र रस की व्यंजना है।।



7 वीभत्स रस

                घृणित वस्तुओं को देखकर या सुनकर जुगुप्सा नामक स्थाई भाव जब विभाव अनुभाव संचारी भावों के सहयोग से परिपक्व अवस्था में पहुंच जाता है तो विभत्स रस में परिणत हो जाता है इसे रसों में शामिल करने का कारण तीव्र वह तुरंत रूप से प्रभावित करने की शक्ति है वैसे श्रृंगार रस हास्य रसों का आनंद विभत्स रस के द्वारा ही लिया जा सकता है ।

 नाट्यशास्त्र के आधार पर आचार्य विश्वनाथ की निम्न पंक्तियों पंक्तियां आज तक विभत्स रस का स्वरूप या लक्षण बताने में प्रयुक्त होती रही है । विभत्स रस उसे कहते हैं जिसका स्थाई भाव जुगुप्सा । वारीनील इसके आलंबन दुर्गंध में मांस रक्त है  इनमें कीड़े पड़ना ही उसका उद्दीपन माना जा सकता है । और मोह आवेग व्याधि ,मरण ,आदि व्यभिचारी भाव है । विभत्स रस में अनुभाव की कोई सीमा नहीं है । वाचित अनुभाव के रूप में छिँछी की ध्वनि अपशब्द निंदा करना आदि कायिक अनुभावों में नाक -भौं चढ़ाना , थूकना ,आंखें बंद करना, कान पर हाथ रखना ,ठोकर मारना ,आदि की गणना की जा सकती है। 

 प्रेमचंद जैसे सामाजिक साहित्यकारों को विसंगतियों के प्रति वीजभाव घृणा हीन है । आधुनिक साहित्य में इसका खूब चित्रण हुआ है । क्योंकि यह जीवन निर्माण की अद्भुत शक्ति रखता है ।

 रक्तबीज सौ अधर्मी आयो 
रणदल जोड़ के सूर क्रोध आयो 
 अस्त्र-शस्त्र सजाए के योग नींद को रक्त पिलायो अंतरिक्ष में पठाए के महामूढ  निस्तंभ योद्धा ठानों है खड़ग।।

 प्रस्तुत उदहारण में गुरु गोविंद सिंह प्रति चंडी चरित्र में युद्ध का दृश्य वर्णित है जिसमें रक्तबीज को मारने के लिए स्वयं शक्ति ने अनेकानेक योगिनियां का रूद्र धारण कर लिया है युद्ध भूमि का सजीव चित्रण होने के बाद यहां वीभत्स रस की व्यंजना है ।

8  अद्भुत रस

                  अद्भुत रस का स्थाई भाव विस्मय  है विस्मय में मानव की आदिम प्रवृत्ति है खेल - तमाशे या पूरे कला कौशल से उत्पन्न विस्मय में उदात  भाव हो सकता है परंतु रस नहीं हो सकता । अद्भुत रसों का व्यापक वर्णन हमारे साहित्य में हुआ है लेकिन हम उसे रस के स्थान पर आदि शब्दों का प्रयोग कर छोड़ देते हैं ऐसी शूक्तियां और व्यंजना है जिसमे चमत्कार प्रधान होता है वह सीधे अद्भुत रस से संबंध है ।

 उदाहरण 
अखिल भुवन चर अचर सब हरि
 मुख में लखी मांतो 
चकित  भई गदगद वचन 
विकसित दृग कूल काव ।।

 अतः अद्भूत अदभुत रस विस्मयकारी घटनाओं वस्तुओं व्यक्तियों तथा उनके चमत्कार को क्रियाकलापों के आलंबन से प्रकट होता है उनके अद्भुत व्यापार घटनाएं परिस्थितियां उद्दीपन बनती है आंखें खुली रह जाना एक टक देखना प्रसन्न होना रोंगटे खड़े हो जाना कंपन स्वेद ही अनुभाव सहज ही प्रकट होते हैं ।  उत्सुकता , जिज्ञासा ,आवेग , भ्रम, हर्ष, मति,गर्व, जड़ता ,धैर्य , आशंका ,चिंता , अनेक संचारी भाव से धारण कर अद्भुत उदास रूप धारण कर  अद्भुत रस में परिणत हो जाता है ।

9  शांत रस 

             शांत रस की उत्पत्ति तत्वभाव और वैराग्य से होती है इसका स्थाई भाव निर्वेद है विभाव अनुभाव व संचारी भावों से संयोग से हृदय में विद्यमान निर्वेद स्थाई भाव स्पष्ट होकर शांत रस में परिणत हो जाता है ।  आनंद वर्धन ने तृष्णा और सुख को शांत रस का स्थाई भाव बताया है । वैराग्य की आध्यात्मिक भावना शांत रस का विषय है । संसार की अस्वता मृत्यु जरा को आदि इसके आलंबन होते हैं जीवन की अमित्यता का अनुभाव सत्संग धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन श्रवण आदि उद्दीपन विभाव है और संयम स्वार्थ त्याग सत्संग गृहत्याग स्वाध्याय आत्म चिंतन आदि अनुभाव कहे जा सकते हैं । शांत रस के संचारी में मति ग्लानि, घृणा ,हर्ष , स्मृति ,संयोग ,विश्वास ,आशा दैन्य आदि की परिगणना की जा सकती है ।
भारत में कवि मानव  महात्मा बुद्ध , दयानंद , विवेकानंद ,आदि की समष्टि साधना और परमार्थ भावना शांत रस की रसानुभूति होती है । इसमें आध्यात्मिक शांति का सबसे ज्यादा महत्व है जो ना केवल वैराग्य को प्रकट करता है अपितु जीवन में संतोष की सृष्टि भी करता है ।
प्रचनन रोग से प्रकट हो संयोग मात्र भारी वियोग हाँ लोभ -मोह मे लीन लोग भूले है अपना परिनाम 
ओ क्षण ....................................राम राम ।।

जब सिद्धार्थ घट छोडकर वन मे जाते है तो वह संसार को सम्बन्धित करते हुए उससे विदा माँगते है । संबोधित करते हुए उससे विदा मांगते हैं , इन पंक्तियों में सिद्धार्थ निर्वेद स्थाई भाव का आश्रय  यह संसार ही इसका आलंबन है संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान उद्दीपन है |  संसार को संबोधित करना घर छोड़कर भागने को कहना और संसार से विरक्ति भाव आदी  अनुभाव है |  दैनिय , धर्म , रोमांच आदि संचारी भाव है | यहां शांत रस का सुंदर परिपाक है क्योंकि शांत रस वस्तुतः ऐसे मानसिक स्तूती  है जिसमें व्यक्ति समस्त संसार को सुखी और आनंदमय देखना चाहता है |

10  वात्सल्य रस 

वात्सल्य रस का आलंबन आधुनिक आचार्यों की देन है |  सूरदास ने अपने काव्य में वात्सल्य भाव का सुंदर विवेचन किया और इसके बाद इसे अंतिम रूप से रस स्वीकार कर लिया गया | आचार्य विश्वनाथ ने वात्सल्य की स्वतंत्र रूप में प्रतिष्ठा तो की परंतु इसे ज्ञापल स्वीकृति सूर , तुलसी आदि  भक्ति में काल के कवियों द्वारा ही प्रदान की गई | 
 वात्सल्य रस का स्थाई भाव वत्सल है | बच्चों की तोतली बोली , उनकी किलकारियां , मनभावन खेल अनेक प्रकार की लीलाएं इसका उद्दीपन है | माता-पिता का बच्चों पर बलिहारी जाना , आनंदित होना , हंसना उन्हें आशीष देना आदि इसके अनुभाव कहे जा सकते हैं |  आवेद , तीव्रता , जड़ता ,रोमांच ,स्वेद, आदि संचारी भाव है | इसमें वात्सल्य रस के दो भेद किए गए हैं
१ संयोग वात्सल्य 
२ वियोग वात्सल्य


11 भक्ति रस 
              संस्कृत साहित्य में व्यक्ति की स्वतंत्र रूप से नहीं है | किंतु बाद में मध्यकालीन भक्त कवियों की भक्ति भावना देखते हुए इसे स्वतंत्र रस के रूप में व्यंजित किया गया | इस रस का संबंध मानव के उच्च नैतिक आध्यात्मिक से है | इसका स्थाई भाव ईश्वर के प्रति रति या प्रेम है भगवान के प्रति पुण्य भाव श्रवण , सत्संग कृपा ,दया आदि उद्दीपन विभाव है|  अनुभाव के रूप में सेवा अर्चना कीर्तन वंदना गुणगान प्रशंसा आदि के लिए किए जा सकते हैं अनेक प्रकार के कायिक , वाच्य ,आहार ,  जैसे आंसू , रोमांच , स्वेद , आदि अनुभाव कहे जा सकते हैं | संचारी रूप में हर्ष , आशा , गर्व , स्तुति ,धैर्य संतोष आदि अनेक भाव संचरण करते हैं इसमें आलंबन ईश्वर और आश्रय उस ईश्वर के प्रेम के अनुरूप मन है | 







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